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ख़्वाहिशों को सर पे लादे यूँ सफ़र करने लगे

राग़िब शकेब

ख़्वाहिशों को सर पे लादे यूँ सफ़र करने लगे

राग़िब शकेब

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    ख़्वाहिशों को सर पे लादे यूँ सफ़र करने लगे

    लोग अपनी ज़ात को ज़ेर-ओ-ज़बर करने लगे

    इस जुनूँ का इस से बेहतर और क्या होगा सिला

    हम ख़ुद अपने ख़ून से दामन को तर करने लगे

    धूप में जलते रहे हैं सर्व की सूरत मगर

    ये ग़ज़ब है चाँद पर फिर भी नज़र करने लगे

    दोस्तों ने तोहफ़तन बख़्शे जो ज़ख़्मों के गुलाब

    उन की बू महसूस हम आठों-पहर करने लगे

    यूँ बदन में ख़ून को अज़्म-ए-सफ़र का हो जुनूँ

    दिल के दरिया में वो फिर पैदा भँवर करने लगे

    रेज़ा रेज़ा हो जाएँ अक्स शीशों के कभी

    अब तलाश-ए-संग ख़ुद ही शीशागर करने लगे

    फूल-पत्तों का उन्हें फिर होश क्या बाक़ी रहे

    जिन दरख़्तों को हवा ज़ेर-ओ-ज़बर करने लगे

    ज़िंदगी है बोझ गर ख़ुद को बदल कुछ इस तरह

    ज़िंदगी तेरे लिए ख़ुद ही सफ़र करने लगे

    बढ़ गया है इस क़दर एहसास-ए-महरूमी 'शकेब'

    लोग अपनी ज़ात से कट कर गुज़र करने लगे

    स्रोत :
    • पुस्तक : Auraaq (पृष्ठ 198)
    • रचनाकार : Vazeer Agha
    • प्रकाशन : Office auraq. chouck Urdu Bazar, Lahore (Nov. Dec. 1974)
    • संस्करण : Nov. Dec. 1974

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