किसी की दास्ताँ-दर-दास्ताँ से कुछ नहीं होता
रोचक तथ्य
(May 27, 1960)
किसी की दास्ताँ-दर-दास्ताँ से कुछ नहीं होता
असर जब तक न हो हुस्न-ए-बयाँ से कुछ नहीं होता
यक़ीं की मंज़िलों में ईन-ओ-आँ से कुछ नहीं होता
गुमाँ कितना ही बढ़ जाए गुमाँ से कुछ नहीं होता
तलब सादिक़ नहीं तो ना-रसाई की शिकायत क्या
न जब तक दिल की शिरकत हो ज़बाँ से कुछ नहीं होता
पिघल जाता है पत्थर भी पिघल जाता है आहन भी
ये किस ने कह दिया सोज़-ए-निहाँ से कुछ नहीं होता
हिजाब-ए-दरमियाँ से दीद का अरमान बढ़ता है
अदा मतलब हिजाब-ए-दरमियाँ से कुछ नहीं होता
जिसे मरना नहीं आता उसे जीना नहीं आता
दिल-ए-बे-हिस हयात-ए-जाविदाँ से कुछ नहीं होता
रक़म फ़रमाइए ख़ून-ए-जिगर से दास्ताँ अपनी
कभी अर्ज़-ए-हदीस-ए-दीगराँ से कुछ नहीं होता
बदलते जा रहे हैं दम-ब-दम आईन-ए-मय-ख़ाना
मयान-मय-कदा पीर-ए-मुग़ाँ से कुछ नहीं होता
रिहाई के लिए भी फ़िक्र कुछ ऐ बुलबुल-ए-नादाँ
क़फ़स में सिर्फ़ याद-ए-आशियाँ से कुछ नहीं होता
जो ठोकर मारता है ये उसी के पाँव पड़ती है
ये दुनिया है यहाँ आह-ओ-फ़ुग़ाँ से कुछ नहीं होता
इबादत के लिए इख़्लास की बे-हद ज़रूरत है
न हो रूह-ए-बिलाली तो अज़ाँ से कुछ नहीं होता
जो होता है मशिय्यत के इशारे से वो होता है
किसी ना-मेहरबाँ या मेहरबाँ से कुछ नहीं होता
बहर-उन्वान हो कर ही रहेगा वो जो होना है
तिरे अंदेशा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से कुछ नहीं होता
नहीं चलती किसी के सामने 'तालिब' नहीं चलती
नज़र से कुछ नहीं होता ज़बाँ से कुछ नहीं होता
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