किसी से कोई शिकवा है न दिल में कोई नफ़रत है
किसी से कोई शिकवा है न दिल में कोई नफ़रत है
मिले हो तुम मुझे जब से ये दुनिया ख़ूबसूरत है
हमारी बन नहीं सकती कभी शैख़-ओ-बरहमन से
गुनाह वो जिस को कहते हैं वही अपनी इबादत है
कहाँ मौक़ा मिला मुझ को तुम्हारे साथ रहने का
सफ़र में मिल गए तरज़ी तो ये समझा सआ'दत है
गुलों को ख़ार कहते हैं ख़लिश को शबनमी ठंडक
इशारा और ही कुछ है ग़ज़ल की ये नज़ाकत है
तुम्हारी हर अदा को जानता पहचानता हूँ मैं
ख़मोशी है अगर लब पर तो ये मेरी शराफ़त है
तुम्हारे हुस्न-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ में मेरा भी तो हिस्सा है
मिरा हिस्सा मुझे दे दो न दोगे तो ख़यानत है
ये कैसी दोस्ती है दोस्तों को तिश्ना रखते हो
बढ़ी जो तिश्नगी हद से तो एलान-ए-बग़ावत है
जिगर का ख़ून होता है तो फिर अशआ'र बनते हैं
जिगर-सोज़ी-ओ-ख़ूँ-रेज़ी में ही सच्ची हलावत है
तुम्हारे मक्र-ओ-साज़िश ने दिखाया है मुझे रस्ता
तिरे जौर-ओ-सितम से ही मिरी दुनिया सलामत है
जो निकले ख़ून के क़तरे छलक कर मेरी आँखों से
ये ख़ुद-कर्दा गुनाहों पर बहे अश्क-ए-नदामत है
तू अपनी क़द्र कर नादाँ तुझे नाएब बनाया है
तिरी क़िस्मत में दुनिया की क़यादत और इमामत है
सुनाते हैं मियाँ 'महमूद' अब तो आप-बीती ही
ब-ज़ाहिर दास्तान-ए-ग़म ब-बातिन इक हिकायत है
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