कोई मक़्तूल-ए-जफ़ा हो जैसे
रोचक तथ्य
(From 6th June, 1965 to 20th July, 1965)
कोई मक़्तूल-ए-जफ़ा हो जैसे
या'नी तस्वीर-ए-वफ़ा हो जैसे
बार-हा यूँ भी हुआ है महसूस
कोई मुझ में ही छुपा हो जैसे
कितना मुस्तग़नी-ए-दरमाँ है ये
दर्द ख़ुद अपनी दवा हो जैसे
यूँ शब-ओ-रोज़ गुज़ारे तुझ बिन
वक़्त सूली पे कटा हो जैसे
इस तकल्लुम पे दिल-ओ-जाँ सदक़े
आप ने शे'र कहा हो जैसे
बात-बे-बात ख़फ़ा हो जाना
ये भी इक उस की अदा हो जैसे
इस तरह खेल रहा है हर शख़्स
ज़िंदगी एक जुआ हो जैसे
दिल-ए-मरहूम का मातम तो नहीं
एक महशर सा बपा हो जैसे
अब तो कुछ ऐसा सुकूँ हासिल है
किसी आबिद की दुआ हो जैसे
चश्मक-ए-बर्क़ तिरा क्या कहना
उसी काफ़िर की अदा हो जैसे
इस तरह काट रहा हूँ हमदम
ज़िंदगी कोई सज़ा हो जैसे
आह ना-कर्दा-गुनाही की क़सम
ये भी मेरी ही ख़ता हो जैसे
जुम्बिश-ए-लब पे गुमाँ होता है
नाम मेरा ही लिया हो जैसे
यूँ बुझा आज चराग़-ए-उम्मीद
ये भी मुफ़्लिस का दिया हो जैसे
इस तरह छुट गए अहबाब-ओ-अज़ीज़
गोश्त नाख़ुन से जुदा हो जैसे
बंदगी कौन करे बंदा-नवाज़
अब तो बंदा ही ख़ुदा हो जैसे
लोग कहते हैं जिसे अहद-ए-शबाब
ये भी दो दिन की हवा हो जैसे
मुसहफ़-ए-रुख़ पे घनेरी ज़ुल्फ़ें
चाँद बदली में छुपा हो जैसे
यूँ गिराया है नज़र से उस ने
अश्क दामन पे गिरा हो जैसे
याद-ए-अय्याम-गुज़िश्ता 'तालिब'
दिल में इक दर्द उठा हो जैसे
अब तो 'तालिब' ये गुमाँ होता है
वो मुझे भूल गया हो जैसे
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