लाख बहलाएँ किसी तरह बहलता ही नहीं
लाख बहलाएँ किसी तरह बहलता ही नहीं
दिल भी लम्हों की तरह है कि ठहरता ही नहीं
अब के मौसम पे तो जादू कोई चलता ही नहीं
अब्र उठता है मगर खुल के बरसता ही नहीं
कोई ख़ुशबू न कोई उस की कसक है इस में
उस के पत्थर से मिरे ज़ख़्म का रिश्ता ही नहीं
जितना सुलझाते हैं उतना ही उलझ जाता है
मसअला ज़ीस्त का अब मुझ से सुलझता ही नहीं
आँधियों का करम-ए-ख़ास रहा है मुझ पर
अब कोई शो'ला नशेमन पे लपकता ही नहीं
मैं भी बिक जाता कभी मिस्र की ख़ातून के हाथ
क़ाफ़िला कोई इधर हो के निकलता ही नहीं
चुप है अब वो मिरे हालात के पस-मंज़र में
अब मिरे सर कोई इल्ज़ाम वो धरता ही नहीं
जिस में ख़ुद-बीनी ख़ुद-आराई-ओ-ख़ुद्दारी है
मस्लहत के किसी साँचे में वो ढलता ही नहीं
ये हक़ीक़त है तिरे तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की क़सम
ख़ार अब कोई मिरे दिल में खटकता ही नहीं
जाने किस मंज़िल-ए-मौहूम पे आ पहुँचे हैं
रास्ता कोई हमारा यहाँ तकता ही नहीं
कितने मंसूर हैं कहने को अनल-हक़ कह दें
दार की सम्त मगर रुख़ कोई करता ही नहीं
तीर-ओ-तल्वार का हर ज़ख़्म सँवर सकता है
बात का ज़ख़्म किसी हाल में भरता ही नहीं
ये मोहब्बत का समुंदर वो समुंदर है 'ज़ुहूर'
डूबने वाला किसी वक़्त उभरता ही नहीं
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