लहू में डूबा हुआ मिला है वफ़ा का हर इक उसूल तुझ को
लहू में डूबा हुआ मिला है वफ़ा का हर इक उसूल तुझ को
मैं जानता हूँ पसंद क्यूँ हैं गुलाब के सुर्ख़ फूल तुझ को
गवाह बन कर बता रही हैं ये सुर्ख़ियाँ तेरी उँगलियों की
समेटने पड़ रहे हैं खूँ-ख़्वार जंगलों के बबूल तुझ को
थकी अना का सफ़र कहाँ तक कहीं तो रुक जा कहीं तो दम ले
बना दिया है मसाफ़तों ने तिरे क़दम की ही धूल तुझ को
ये रेज़ा रेज़ा सी आरज़ूएँ कभी तो कर दे मिरे हवाले
मैं अपने बिखरे बदन की मानिंद देखता हूँ मलूल तुझ को
उफ़ुक़ के उस पार भी मुनासिब नहीं है आदर्श का तआक़ुब
कहीं तुझे बे-वतन न कर दे तिरा ये शौक़-ए-फ़ुज़ूल तुझ को
वो ख़त रक़ीबों के हाथ आया लिखा था जो मेरे नाम तू ने
कहाँ कहाँ कर चुकी है रुस्वा तिरी ये छोटी सी भूल तुझ को
तुझी को नफ़रत रही है जिन से वो जिन की ताबीर सिर्फ़ तू है
वो आख़िर-ए-शब के ख़्वाब करने पड़ेंगे आख़िर क़ुबूल तुझ को
'क़तील' कितने ही लफ़्ज़ अपनी असास का ज़ाइक़ा बदल लें
अगर बता दूँ कभी मैं अपनी ग़ज़ल की शान-ए-नुज़ूल तुझ को
- पुस्तक : Kalam Qateel Shifai (पृष्ठ 128)
- रचनाकार : Qateel Shifai
- प्रकाशन : Farid Book Depot Pvt. Ltd (2011)
- संस्करण : 2011
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