लज़्ज़त-ए-दर्द बढ़ा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
लज़्ज़त-ए-दर्द बढ़ा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
इफ़्तिख़ार अहमद अल्वी काकोरी
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लज़्ज़त-ए-दर्द बढ़ा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
आग में ख़ुद को जला कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
जल्वा-ए-हुस्न-ए-अतम है वो सरापा-ए-जमाल
उस के जलवों में समा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
इमतियाज़-ए-मन-ओ-तू कैसा कहाँ की तफ़रीक़
जुज़्व को कुल से मिला कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
यूरिश-ए-दौर कहीं गर्द मिरी पा न सकें
शम'-ए-उम्मीद बुझा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
आरज़ू वस्ल की है शौक़ में इक्सीर-ए-हयात
इस में कुछ आँच दिखा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
हर्फ़ नामूस-ए-मोहब्बत पे न आ जाए कहीं
शैख़-ए-नादाँ से छुपा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
निकहत-ए-नूर मुकम्मल है जुनूँ की तफ़्सीर
सोज़-ए-ग़म इस में बढ़ा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
ख़ैर-मक़्दम को पए-आमद-ए-जानाँ 'अलवी'
अश्क पलकों पे सजा कर मैं ग़ज़ल कहता हूँ
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