मआल-ए-हासिल-ए-ग़म को ग़म-ए-हासिल समझते हैं

मआल-ए-हासिल-ए-ग़म को ग़म-ए-हासिल समझते हैं
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
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मआल-ए-हासिल-ए-ग़म को ग़म-ए-हासिल समझते हैं
फ़रेब-ए-जादा-ए-मंज़िल को हम मंज़िल समझते हैं
कभी गिर्यां-कुनाँ होती है जब मंज़र की बेताबी
हम उस बे-मंज़री को दीद के क़ाबिल समझते हैं
समझ सकती नहीं ये चश्म-ए-नर्गिस पर ग़नीमत है
चमन वाले हमारा 'उक़्दा-ए-मुश्किल समझते हैं
हमें तो दस्त-ए-क़ातिल भी लगे दस्त-ए-मसीहा सा
सितम-परवर हैं जो क़ातिल को भी क़ातिल समझते हैं
हक़ीक़त वा'इज़ान-ए-शहर की खुल ही गई नासेह
अधूरे हैं जो ख़ुद अपने तईं कामिल समझते हैं
क़फ़स को ले उड़ी है जुम्बिश-ए-पर ताइर-ए-जाँ की
ये बातें साहिबान-ए-जज़्बा-ए-कामिल समझते हैं
अभी तक मस्लहत-बीनी के जो ज़ेर-ए-तसल्लुत हैं
फ़ुसूँ-आरा सियासत में हमें शामिल समझते हैं
सुनो हम कुश्तगाँ की साकिनान-ए-शहर-ए-ख़्वाब-आवर
तुम्हारे हाल से वाक़िफ़ हैं मुस्तक़बिल समझते हैं
फ़ना हो शम'-ए-नामूस-ए-वफ़ा पर बढ़ के परवाने
यही है कार-ए-आसाँ सब जिसे मुश्किल समझते हैं
नज़र से पी ले जो दुर्द-ए-तह-ए-जाम-ए-मोहब्बत को
हम उस महफ़िल-नशीं को साहिब-ए-महफ़िल समझते हैं
मसलते हैं रग-ए-एहसास को पैरों तले पैहम
वो संग-ए-रहगुज़र को भी हमारा दिल समझते हैं
'मुज़फ़्फ़र' किस को अंदाज़ा है उन की तेज़-गामी का
जो संग-ए-मील को गर्द-ए-रह-ए-मंज़िल समझते हैं
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