मैं क्यों कहूँ किसी से ज़रूरत ही क्यों न हो
मैं क्यों कहूँ किसी से ज़रूरत ही क्यों न हो
दिल उस से बे-नियाज़ है 'उसरत ही क्यों न हो
मर्दुम-गज़ीदगी का असर है कि आज तक
डरता हूँ मैं फ़रेब-ए-मोहब्बत ही क्यों न हो
क्या क्या त'अस्सुबात हैं दुनिया में जा-ब-जा
तशवीश-ए-दिल फ़ुज़ूँ है कि हिजरत ही क्यों न हो
नाकाम-ए-आरज़ू है कोई दिल तो क्या हुआ
तस्कीन-ए-जाँ है कुछ तो वो हसरत ही क्यों न हो
गूँजेगी और तेशा-ए-मज़दूर की सदा
हर चंद अहल-ए-ज़र की मलामत ही क्यों न हो
मुझ को नहीं क़ुबूल ग़ुलामी का लफ़्ज़ भी
ख़िदमत-गुज़ार-ए-वक़्त की उजरत ही क्यों न हो
हुस्न-ए-ख़याल के सिवा बनती है बात कब
हुस्न-ए-बयान में कोई नुदरत ही क्यों न हो
बद-ख़सलती से बाज़ कब आता है बद-निहाद
कम-ज़र्फ़ ओ बे-ज़मीर पे ला'नत ही क्यों न हो
हम बंदगान-ए-ख़ाक-नशीं ख़ाकसार हैं
अपने लिए फ़ुज़ूल है सतवत ही क्यों न हो
फ़स्ल-ए-गुल-ए-बहार की ख़्वाहिश तो कीजिए
सहरा-ए-ज़िंदगी में सुकूनत ही क्यों न हो
'राही' ख़ुलूस-ए-दिल के सिवा हाथ कुछ न आए
दिल में दरूद विर्द में आयत ही क्यों न हो
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