मैं ने लिखी लहू से तो तहरीर बोल उठी
मैं ने लिखी लहू से तो तहरीर बोल उठी
साहबज़ादा मीर बुरहान अली खां कलीम
MORE BYसाहबज़ादा मीर बुरहान अली खां कलीम
मैं ने लिखी लहू से तो तहरीर बोल उठी
हर क़त्ल-ए-बे-क़ुसूर की तफ़्सीर बोल उठी
ज़िंदाँ में तो मैं मोहर-ब-लब ही रहा मगर
झंकार बन के पाँव की ज़ंजीर बोल उठी
पूछा कि क़त्ल-ओ-ख़ून ये है किस नज़र का शौक़
तन कर निगाह-ए-वक़्त की शमशीर बोल उठी
बे-कार है तलब जो ख़ुलूस-ए-तलब न हो
उट्ठे दुआ को हाथ तो तासीर बोल उठी
आईना देखते हुए जब भी ख़याल में
मैं चुप रहा तो आप की तस्वीर बोल उठी
जागे शुऊर-ओ-फ़िक्र तो वीरान ज़ीस्त में
तदबीर-ए-कामयाब की तक़दीर बोल उठी
अक्सर यही हुआ है कि जब अर्ज़-ए-शौक़ में
उजलत न हो सकी है तो ताख़ीर बोल उठी
वो राज़ जिस को कह न सकी शर्म से ज़बान
उन के हिनाई हाथ की तहरीर बोल उठी
थी सुब्ह-ए-नौ उस आग पे गुम-सुम मगर 'कलीम'
हर एक जलते ख़्वाब की ता'बीर बोल उठी
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