मंज़िल-ए-ख़्वाब लुटी ख़त्म हुई काविश-ए-दिल
मंज़िल-ए-ख़्वाब लुटी ख़त्म हुई काविश-ए-दिल
अब तो बेचारगी-ए-जिस्म है और काहिश-ए-दिल
बर्फ़ सी जमने लगी मा'बद-ए-तन पर आख़िर
सर्द होने लगा आतिश-कदा-ए-ख़्वाहिश-ए-दिल
पाँव के आबले सहलाने की फ़ुर्सत किस को
चैन लेने नहीं देती है यहाँ सोज़िश-ए-दिल
इक फ़लक-ज़ाद के चेहरे पे नज़र ठहरी है
ले के जाती है कहाँ देखिए अब गर्दिश-ए-दिल
क्या करें उस के लिए तन को लगा लें कोई रोग
सख़्त अंजान है करता ही नहीं पुर्सिश-ए-दिल
चश्म हैरान जुदा 'अक़्ल सरासीमा अलग
और बढ़ती चली जाती है इधर साज़िश-ए-दिल
आँख में भीगी हुई शाम का मंज़र ही रहा
कुर्रा-ए-ख़्वाब पे होती ही रही बारिश-ए-दिल
हम भी ख़ामोश गुज़र जाएँगे औरों की तरह
ले भी आई तिरे कूचे में अगर लग़्ज़िश-ए-दिल
सर्द करता है लहू तेरे ज़मिस्ताँ का ख़याल
मुंजमिद होने नहीं देती मगर ताबिश-ए-दिल
कोई आए तो चराग़ाँ हो सभी रस्तों पर
कोई ठहरे तो सजे बज़्म-गह-ए-ख़्वाहिश-ए-दिल
लब अगर बंद रहे आँख अगर साकित थी
तू जो आया हमें महसूस हुई जुम्बिश-ए-दिल
रौनक़-ए-बज़्म से क्या हाथ उठाना था कि फिर
रंग-ए-दुनिया से सिवा हो गई कुछ रामिश-ए-दिल
राख का ढेर ही पाओगे पलट आने पर
गर इसी तरह जलाएगी हमें आतिश-ए-दिल
शूमी-ए-बख़्त सही ज़िंदगी कुछ सख़्त सही
फिर भी क़ाएम है अभी हुर्मत-ए-जाँ नाज़िश-ए-दिल
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