मंज़िल-ए-मक़्सूद मिलती है रह-ए-तदबीर से
कुछ नहीं होता है हासिल शिकवा-ए-तक़दीर से
आज डर जाते हैं मा'मूली सी इक ता'ज़ीर से
वो भी दिन थे जब गले मिलते थे हम शमशीर से
नींद उड़ जाती है उस आवाज़ की तासीर से
जब अज़ाँ देता है कोई नग़्मा-ए-दिल-गीर से
क्या लड़ेंगे हम से वो तलवार से शमशीर से
दिल दहल जाते हैं जिन के नारा-ए-तकबीर से
आज फिर चारों तरफ़ इस्लाम पर यलग़ार है
काम लेना है हमें फिर जज़्बा-ए-शब्बीर से
जब कभी मैं चाहता हूँ अपनी सूरत देखना
आइने का काम लेता हूँ तिरी तस्वीर से
जज़्बा-ए-जोश-ए-जुनूँ मेरा अब इस मंज़िल में है
हाल उन का पूछता फिरता हूँ हर रह-गीर से
छोड़ देना अपना माहौल इतना आसाँ भी नहीं
जो अँधेरे में हैं उन को क्या ग़रज़ तनवीर से
इज़्तिराबी कैफ़ियत होती है जब तेरे बग़ैर
दिल को बहला लेता हूँ अक्सर तिरी तस्वीर से
नब्ज़-ए-आलम रुक गई होगी शब-ए-इसरा ज़रूर
बे-हक़ीक़त ज़ौ-फ़िशाँ हिलती हुई ज़ंजीर से
ऐ 'मुसव्विर' देख ये भी गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार
मिल गया है सिलसिला तख़रीब का ता'मीर से
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