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मरमरीं चाँद की लौ मचलती रही रात ढलती रही

इसरार कफ़ील

मरमरीं चाँद की लौ मचलती रही रात ढलती रही

इसरार कफ़ील

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    मरमरीं चाँद की लौ मचलती रही रात ढलती रही

    दिल बहलता रहा जाँ सँभलती रही रात ढलती रही

    हम मुसाफ़िर थे और थी शरीक-ए-सफ़र इक हवा-ए-ख़ुनुक

    बस्तियों में कहीं आग जलती रही रात ढलती रही

    शहर-ए-इम्कान में मैं तिरे ध्यान में जिस तरफ़ भी गया

    अजनबी धुन मिरे साथ चलती रही रात ढलती रही

    साहिल-ए-याद पर मैं रहा जागता सो सका भी तो क्या

    बे-सुकूँ लहर करवट बदलती रही रात ढलती रही

    'उम्र के ताक़ में इक दरीचा खुला रौशनी से धुला

    शम-ए-एहसास कुछ पल पिघलती रही रात ढलती रही

    शाख़-ए-गुल पर कहीं ओस पड़ती रही आँसुओं की तरह

    ओस पड़ती रही शाख़ जलती रही रात ढलती रही

    शब सितारा थी लेकिन धुआँ हो गई बे-अमाँ हो गई

    मुंतज़िर आँख में नींद टलती रही रात ढलती रही

    किस इशारे पे रक़्क़ासा-ए-ज़िंदगी पा-ब-जौलाँ हुई

    रक़्स करती रही ख़ूँ उगलती रही रात ढलती रही

    धीरे धीरे 'कफ़ील' आख़िरश कट गया रास्ता रत-जगा

    यूँही चलता रहा रात ढलती रही रात ढलती रही

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