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मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ

तौसीफ़ तबस्सुम

मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ

तौसीफ़ तबस्सुम

MORE BYतौसीफ़ तबस्सुम

    मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ

    बह गया सारा लहू तन का तो दिन आधा हुआ

    रास्तों पर पेड़ जब देखे तो आँसू गए

    हर शजर साया था तेरी याद से मिलता हुआ

    सुब्ह से पहले बदन की धूप में नींद गई

    और कितना जागता मैं रात का जागा हुआ

    शहर-ए-दिल में इस तरह हर ग़म ने पहचाना मुझे

    जैसे मेरा नाम था दीवार पर लिक्खा हुआ

    ज़ीस्त के पुर-शोर साहिल पर गए लम्हों की याद

    जिस तरह साया हो सत्ह-ए-आब पर ठहरा हुआ

    ग़म हुए वो आश्ना चेहरों के आईने कहाँ

    शहर है सारे का सारा धुँद में लिपटा हुआ

    वस्ल के बादल ज़रा थम हुस्न-ए-क़ामत देख लूँ

    प्यास का सहरा तो है ता-चश्म-ए-तर फैला हुआ

    मुझ को आशोब-ए-हिकायत जान लेने की हवस

    और ये तेरा बदन इक दास्ताँ कहता हुआ

    ग़म जो मिलता है तो तौसीफ़ सीने से लगाओ

    किस ने लौटाया है यूँ मेहमान घर आया हुआ

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