मेरे एहसासात का आलम मेरा ही दीवान लगे
मेरे एहसासात का आलम मेरा ही दीवान लगे
लेकिन जब पढ़ने को बैठूँ ज़ख़्मों की दूकान लगे
तेरी क़ुर्बत से मुझ पर तो इतनी हक़ीक़त खुल ही गई
मुझ में बसने वाला इंसाँ मुझ को अब शैतान लगे
ग़म के मुसलसल सदमों से मानूस हो गया दिल इतना
हँसते रोते इंसानों की बस्ती भी वीरान लगे
अव्वल अव्वल बेगाना-पन आख़िर आख़िर हमदर्दी
टूटे दिल के ख़ुश्क लबों पर मेरे इक मुस्कान लगे
दिल से हो कर बरगश्ता आँखों की राह जो निकला है
क़तरा-ए-ख़ून-ए-सर-ए-दामन अब मुझ को इक अरमान लगे
मैं ने कब तुम से कुछ चाहा क्यों ये इनायत क्यों ये करम
बिन चाहे बिन माँगे दौलत-मंद का न एहसान लगे
इतनी नज़र तो पैदा कर ओ नज़्ज़ारों के मतवाले
जिस आईने को देखे वो आईना हैरान लगे
चश्म-ए-करम ने इतना नवाज़ा देखने वाले कहते हैं
ज़ख़्म हरा हो या रिसता हो नज़रों को गुल-दान लगे
लम्हा लम्हा उन की क़ुर्बत दिल में बसी है मेरे 'कमल'
तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ आसाँ है ये कहना तो आसान लगे
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