मिले जो ग़म भी तो उस को बरत ख़ुशी की तरह
मिले जो ग़म भी तो उस को बरत ख़ुशी की तरह
गुज़ार ज़िंदगी नादान ज़िंदगी की तरह
जहाँ पे हक़ हो वहाँ हक़ की बात कह दीजे
ख़मोश रहना भी है जुर्म ख़ुद-कुशी की तरह
जहान-ए-हिर्स-ओ-हवस का तो है गिला ताहम
मिले हैं मुझ को फ़रिश्ते भी आदमी की तरह
जो बात शीरीं-बयानी का अक्स रखती है
वो बात दिल में उतरती है रौशनी की तरह
वगर्ना रस्म-ए-जहाँ-दारी-ए-हयात निभा
किसी को चाह तो फिर चाह बंदगी की तरह
वफ़ा की हुरमत-ए-बेहद का पास था मुझ को
तुम्हारे शहर से गुज़रा हूँ अजनबी की तरह
मैं अपना आप मुकम्मल वजूद हूँ 'शारिक़'
मुझे ग़रज़ ही नहीं है बनूँ किसी की तरह
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