मिरा बिखरना पस-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं देखा
मिरा बिखरना पस-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं देखा
सैफ़ुर्रहमान अब्बाद ग़ाज़ीपूरी
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मिरा बिखरना पस-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं देखा
किसी ने जलते दिए का धुआँ नहीं देखा
कुछ इतना झुक के चले हम लिहाज़-ए-दुनिया में
ज़मीं ही देखी कभी आसमाँ नहीं देखा
कभी वो आँख में है तो कभी है आँसू में
कहीं भी हम ने उसे बे-मकाँ नहीं देखा
दयार-ए-ग़ैर में इक शख़्स से कहा मैं ने
न देखा कुछ भी जो हिन्दोस्ताँ नहीं देखा
तमाज़तों से जिसे साबिक़ा था हम ने उसे
शजर के साए में भी शादमाँ नहीं देखा
मिरा ही अश्क पिलाते हो मुझ को महफ़िल में
तुम्हारे जैसा कोई मेज़बाँ नहीं देखा
उसे हो लफ़्ज़ का इरफ़ान किस तरह 'अब्बाद'
कि जिस ने लफ़्ज़ का आतिश-फ़िशाँ नहीं देखा
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