मिरे हिस्से का हर फल क्यों सदा कड़वा निकलता है
मिरे हिस्से का हर फल क्यों सदा कड़वा निकलता है
भरोसा जिस पे करता हूँ वही झूटा निकलता है
मिरी क़िस्मत में लिक्खी ही नहीं शायद कभी ख़ुशियाँ
कुआँ खोदूँ जहाँ पानी वहीं खारा निकलता है
यूँही बन कर नहीं उभरा हूँ मैं हीरा ज़माने में
कि हर पत्थर का मेरे सर से इक रिश्ता निकलता है
मैं इस उम्मीद पर इस बार तेरे पास आया हूँ
अता होगा जो तेरे हुस्न का सदक़ा निकलता है
हर इक शब चाँद तो तारों को ले कर साथ आता है
मगर सूरज तो बेचारा सदा तन्हा निकलता है
कभी फ़ुर्सत मिले तो देख लो तन्हाई में आ कर
तुम्हारी याद में आँखों से जो दरिया निकलता है
कोई मुफ़्लिस करे बच्चे की ख़्वाहिश किस तरह पूरी
खिलौना जो पसंद आता है वो महँगा निकलता है
सभी तारे फ़लक पर इतने ख़ुश-क़िस्मत नहीं होते
सिवा इक चाँद के नज़दीक जो तारा निकलता है
नहीं बुझती है शायद प्यास अब लोगों की पानी से
जिसे देखो हमारे ख़ून का प्यासा निकलता है
यक़ीं किस पर करें अपना कहें किस को यहाँ 'तारिक़'
कि अब हर शख़्स के चेहरे पे इक चेहरा निकलता है
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