मिरे मिज़ाज पे दीवाना-वार बरसा है
मिरे मिज़ाज पे दीवाना-वार बरसा है
मोहम्मद इफ़तिख़ारुल हक़ समाज
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मिरे मिज़ाज पे दीवाना-वार बरसा है
कभी सुकून कभी इज़्तिरार बरसा है
ये सुर्ख़ फ़स्ल यूँही आँख में कहाँ उगती
हमारे दिल पे बहुत इंतिज़ार बरसा है
हदों में जिस की उभरने लगा कोई चेहरा
किसी का याद का ऐसा हिसार बरसा है
किसी ज़माने में बेदारियों की रिम-झिम थी
हमारे बख़्त पे अब के ख़ुमार बरसा है
फिर इस के बाद बहुत हब्स-ए-जब्र फैल गया
ज़रा सी देर अगर इख़्तियार बरसा है
मिरे ख़याल की पोशाक इत्र-बेज़ हुई
किसी के जिस्म पे खुल कर निखार बरसा है
इसी लिए तो ये दश्त-ए-फ़रेब सब्ज़ हुआ
कहीं ख़ुलूस कहीं ए'तिबार बरसा है
धुले हुए जो ये लहजे हुए हैं मटियाले
उस आबशार पे इक रेगज़ार बरसा है
ग़ुरूर बह के नशेब-ए-अना में डूब गया
फ़लक से ऐसे कोई ख़ाकसार बरसा है
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