मिरी चश्म-ए-तमाशा-बीं कि हैरानी नहीं जाती
मिरी चश्म-ए-तमाशा-बीं कि हैरानी नहीं जाती
तलअत सिद्दीक़ी नह्टोरी
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मिरी चश्म-ए-तमाशा-बीं कि हैरानी नहीं जाती
मगर हुस्न-ए-अज़ल की जल्वा-सामानी नहीं जाती
शहादत नौजवानान-ए-वतन की रंग लाती है
अमल की राह में बे-कार क़ुर्बानी नहीं जाती
कोई तिनका अभी बाक़ी है शायद आशियाने में
जो अब तक बर्क़ की ये शो'ला-सामानी नहीं जाती
चमन में मुद्दतों से गरचे ये दौर-ए-बहाराँ है
मगर अब भी गुलों की चाक-दामानी नहीं जाती
वही आँखें जिन्हें ज़ौक़-ए-बसीरत हम ने बख़्शा था
उन्ही से अब हमारी शक्ल पहचानी नहीं जाती
कभी अपने इशारों पर ये दुनिया रक़्स करती थी
मगर अब तो हमारी बात भी मानी नहीं जाती
चमन में मंज़र-ए-बर्बादी-ए-गुल जब से देखा है
किसी सूरत मिरी आँखों की हैरानी नहीं जाती
तुम्हारे सर है कितना ख़ून-ए-नाहक़ बे-गुनाहों का
मगर फिर भी तुम्हारी पाक-दामानी नहीं जाती
हज़ारों इंक़लाब आए हैं दुनिया में मगर 'तलअ'त'
सुकूँ ना-आश्ना दिल की परेशानी नहीं जाती
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