मिरी निगाह है अब मुझ पे आइनों की तरह
मिरी निगाह है अब मुझ पे आइनों की तरह
तभी तो देखती हूँ ख़ुद को दूसरों की तरह
वो अपनी प्यास का 'आलम भी मैं ने देखा है
मैं अपने आप पे बरसी हूँ बारिशों की तरह
मैं मंज़िलों पे ठहरना कभी न सीख सकी
सफ़र मैं करती रही सिर्फ़ रास्तों की तरह
है मेरे रोज़ के मा'मूल का असर मुझ पर
मैं ख़ुद को जीने लगी हूँ अब 'आदतों की तरह
वो वहशतों का समाँ था कोई मिला ही नहीं
मैं अपने आप से पेश आई पागलों की तरह
वफ़ा का इस से ज़ियादा सुबूत क्या देती
मैं राख हो तो गई उस की सिगरटों की तरह
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