मोहब्बत का तलातुम-ख़ेज़ तूफ़ाँ दिल से उठता है
मोहब्बत का तलातुम-ख़ेज़ तूफ़ाँ दिल से उठता है
तलअत सिद्दीक़ी नह्टोरी
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मोहब्बत का तलातुम-ख़ेज़ तूफ़ाँ दिल से उठता है
ये वो सैलाब है जो सीना-ए-साहिल से उठता है
वुफ़ूर-ए-शौक़-ए-दीद-ओ-जज़्बा-ए-कामिल से उठता है
नक़ाब उठता तो है लेकिन बड़ी मुश्किल से उठता है
कोई जब बा-दिल-ए-नाख़्वासता महफ़िल से उठता है
क़दम उठता तो है उस का मगर मुश्किल से उठता है
भटकता है कोई गुम-कर्दा-मंज़िल राह में शायद
ग़ुबार उस का अभी तक जादा-ए-मंज़िल से उठता है
दम-ए-नज़्ज़ारा गिर जाता है मजनूँ की निगाहों पर
वही पर्दा जो लैला के दर-ए-महमिल से उठता है
जलाती शम्अ' है या आप जल जाता है परवाना
बहर-सूरत ये फ़ित्ना आप की महफ़िल से उठता है
कलेजे में कभी जब आतिश-ए-उल्फ़त सुलगती है
जिगर से कुछ धुआँ उठता है शो'ला दिल से उठता है
कहो बाद-ए-मुख़ालिफ़ से बता दो मौज-ए-तूफ़ाँ को
मिरी कश्ती का लंगर दामन-ए-साहिल से उठता है
तसव्वुर में नज़र आता है जल्वा बे-नक़ाब उन का
जब आँखें बंद होती हैं तो पर्दा दिल से उठता है
उभरना है तो याद-ए-तल्ख़ी-ए-माज़ी से क्या हासिल
जब उठता है कोई उम्मीद-ए-मुस्तक़बिल से उठता है
फ़रिश्ते आज तक हैरान हैं इंसाँ की हिम्मत पर
ये बार-ए-इश्क़ ऐ 'तलअ'त' बड़ी मुश्किल से उठता है
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