मोहब्बत कम-निगाहों को नज़र में ला नहीं सकती
मोहब्बत कम-निगाहों को नज़र में ला नहीं सकती
ये बिजली हर ख़स-ओ-ख़ाशाक से टकरा नहीं सकती
जो कहना है कहो हक़ पर कभी आँच आ नहीं सकती
कोई ताक़त ख़ुलूस-ए-फ़िक्र को झुटला नहीं सकती
गिरा कर अर्श से भी हुस्न-ए-बे-परवा ने देखा है
कोई आलम हो मेरी आदमिय्यत जा नहीं सकती
मतानत आ चुकी है उन के लहजे उन की बातों में
वो चाहें लाख चेहरे पर मतानत आ नहीं सकती
न समझो दोस्त की हद तक कमाल अपनी मोहब्बत का
अभी नाक़िस है दुश्मन को अगर तड़पा नहीं सकती
गिरा हूँ रब्ब-ए-क़िबला जब भी ठोकर मैं ने खाई है
मिरी ख़ुद्दारी ऐसी वैसी ठोकर खा नहीं सकती
कभी तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ ख़ाली जा नहीं सकता
कोई नेकी भी ऐसे वक़्त आड़े आ नहीं सकती
नशेमन मेरा रहने दो चमन पर आँच गर आई
नशेमन ही पे आएगी चमन पर आ नहीं सकती
हक़ाएक़ ही रहेंगे 'नज्म' मेरी फ़िक्र का हासिल
ख़याल-ओ-ख़्वाब में फ़िक्र-ए-सुख़न उलझा नहीं सकती
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