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मोहब्बत के सफ़र को हर घड़ी दुश्वार करता था

फ़र्रुख नवाज़ फ़र्रुख़

मोहब्बत के सफ़र को हर घड़ी दुश्वार करता था

फ़र्रुख नवाज़ फ़र्रुख़

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    मोहब्बत के सफ़र को हर घड़ी दुश्वार करता था

    वो हर इक रास्ते को मेरे ना-हमवार करता था

    ग़ज़ल लिख कर तिरी दीवार पर लटका के जब आता

    तो सारी रात फिर गिर्या दर-ओ-दीवार करता था

    मरे एहसास को छलनी किए देता था हर लम्हा

    ये कार-ए-ख़ैर मेरे शहर का अख़बार करता था

    जिसे तुम चाह कर भी पार हरगिज़ कर नहीं पाए

    में टूटी-फूटी कश्ती से वो दरिया पार करता था

    सुना है एक ज़ालिम शहर में ऐसा भी आया था

    जो मरने के लिए बच्चों को भी तय्यार करता था

    सबक़ पढ़ता भी तो कैसे कि सारा दिन मिरे हमदम

    में चुपके चुपके हर इक पल तिरा दीदार करता था

    मरे अतराफ़ में शहनाइयाँ सी बजने लगती थीं

    मोहब्बत का कभी 'फ़र्रुख़' वो जब इज़हार करता था

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