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मुझ को मसनद पे क़लमदाँ बख़्शा

मीर कल्लू अर्श

मुझ को मसनद पे क़लमदाँ बख़्शा

मीर कल्लू अर्श

MORE BYमीर कल्लू अर्श

    मुझ को मसनद पे क़लमदाँ बख़्शा

    शेर-ए-क़ालीं को नियस्ताँ बख़्शा

    पीर-ए-कनआँ' को दिया दाग़-ए-फ़िराक़

    एक ज़न को मह-ए-कनआँ' बख़्शा

    मरज़-ए-इश्क़ में मौत आती है

    तू ने हर दर्द को दरमाँ बख़्शा

    क़ाबिल-ए-दीद है हुस्न-ए-हिकमत

    हूर को रौज़ा-ए-रिज़वाँ बख़्शा

    क़तरा भी वुसअ'त-ए-रहमत से है बहर

    चश्म को नूह का तूफ़ाँ बख़्शा

    दिल-ए-नालाँ को दिए दाग़-ए-फ़िराक़

    एक बुलबुल को गुलिस्ताँ बख़्शा

    दिल-ए-बे-रहम दिया ज़ालिम को

    जिस तरह तीर को पैकाँ बख़्शा

    गुल को पुर-ज़र जो गरेबाँ बख़्शा

    ख़ार को दश्त का दामाँ बख़्शा

    रहम आया जो गुनहगारों पर

    गुनह-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ बख़्शा

    गया कुछ जो करीमी का ख़याल

    हूर को मुल्क-ए-सुलैमाँ बख़्शा

    तेरी तदबीर है ऐन-ए-तक़दीर

    मौत को आलम-ए-इम्काँ बख़्शा

    सुर्ख़-रू अहल-ए-करम को रक्खा

    बहर को पंजा-ए-मर्जां बख़्शा

    लब की जा बोसा-ए-रुख़्सार दिया

    एवज़-ए-ला'ल बदख़्शाँ बख़्शा

    मुसहफ़-ए-रुख़ का जो देखा कोई शेर

    रूह-ए-'हाफ़िज़' को भी क़ुरआँ बख़्शा

    उस से हूँ तालिब-ए-ईमाँ 'अर्श'

    जिस ने काफ़िर को भी ईमाँ बख़्शा

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