नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
हज़ार हैफ़ कि गुल की ख़बर नहीं आती
रक्खे है आईना क्या मुँह पे मेरे ऐ हमदम
कि ज़िंदगी मुझे अपनी नज़र नहीं आती
भटकती फिरती है लैला सवार नाक़े पर
जिधर है वादी-ए-मजनूँ उधर नहीं आती
कमर ही को तिरी पर्वा नहीं है कुछ उस की
वगर्ना ज'अद तो कब ता-कमर नहीं आती
तिरी शबीह मिरे सामने खड़ी है मियाँ
हया के मारे वले पेशतर नहीं आती
हुआ हूँ आह मैं जिस पुर-ग़ुरूर पर आशिक़
कनीज़ उस की कभी मेरे घर नहीं आती
क़लक़ से होती है कुछ दिल की मेरे ये हालत
कि नींद रात को दो दो पहर नहीं आती
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
कि उस के पीछे से दौड़ी सहर नहीं आती
गया है ग़म मिरे नामे को ले के कुछ ऐसा
कि आज तक ख़बर नामा बर नहीं आती
ख़िराम फ़ित्ना-ए-रोज़-ए-जज़ा ब-ईं शोख़ी
तिरे ख़िराम के ओहदे से बर नहीं आती
मैं तर्क-ए-इश्क़ को कहता हूँ 'मुसहफ़ी' तुझ से
ये बात ध्यान में तेरे मगर नहीं आती
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(divan-e-soom) (पृष्ठ 276)
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