नज़र उट्ठी जिधर तेरी उधर ही मैं ने जाँ रख दी
नज़र उट्ठी जिधर तेरी उधर ही मैं ने जाँ रख दी
मगर हैराँ हूँ मैं ख़ुद भी मता-ए-जाँ कहाँ रख दी
जिसे देना था दे डाला नहीं दिल कोई ऐसी शय
इधर रख दी उधर रख दी यहाँ रख दी वहाँ रख दी
तुझे आवाज़ देता हूँ मैं जब तन्हाई पाता हूँ
निहाँ-ख़ाने में दिल के इक नई तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ रख दी
बहुत चाहा कि हाल-ए-दिल कभी कोई न सुन पाए
मगर कम्बख़्त आँखों ने ख़मोशी में ज़बाँ रख दी
अनासिर में बड़ा हैजान था तूफ़ाँ सा बरपा था
बिना दुनिया की ऐसे में किसी ने ना-गहाँ रख दी
चमक इन मोतियों की और भी दो-चंद होनी थी
ख़ुद अपने फ़न पे मैं ने ही निगाह-ए-नाक़िदाँ रख दी
इनायत दिल की है इश्क़-ए-हक़ीक़ी हो मजाज़ी हो
यही इक बात है जो दास्ताँ-दर-दास्ताँ रख दी
मिटा दी अपनी हस्ती फिर भी दुनिया कुछ न दे पाई
जबीं मुझ को कहाँ रखनी थी और मैं ने कहाँ रख दी
चलाए जाते तुम भी तीर ना-हंजार दुनिया पर
मगर 'रिज़वान' तुम ने भी तो आख़िर में कमाँ रख दी
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