निगाह-ए-शोख़ से जब शौक़ का पैग़ाम आता है

निगाह-ए-शोख़ से जब शौक़ का पैग़ाम आता है
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
MORE BYमुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
निगाह-ए-शोख़ से जब शौक़ का पैग़ाम आता है
हमें उस दम ख़याल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आता है
वही इक वक़्त होता है जो अपने काम आता है
कभी बरसों में जब दौर-ए-बहार-ए-जाम आता है
कहाँ आराम रक्खा है कहाँ आराम आता है
गुज़र जाती है सुब्ह-ए-ग़म तो वक़्त-ए-शाम आता है
ख़ुलूस-ए-दिल की अपने क़द्र हो जिस बज़्म में हमदम
वहीं जा कर उसूल-ए-ज़िंदगी भी काम आता है
मज़ाक़-ए-ज़िंदगी क्या ख़ाक बदलें ऐसी महफ़िल का
जहाँ हर रोज़ हम पर इक नया इल्ज़ाम आता है
मिरी नाकामी-ए-क़िस्मत तमाशा कर दिखाती है
लबों तक जब कभी मेरे ख़ुशी का जाम आता है
उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो
जो अपने साथ राह-ए-शौक़ में दो-गाम आता है
मिरे ज़ुल्मत-कदे में तीरगी बढ़ती है जब हद से
मिरा दाग़-ए-जिगर बन कर चराग़-ए-शाम आता है
ग़नीमत है जो उस ने याद फ़रमाया है चल ऐ दिल
कहीं उस की तरफ़ से रोज़ यूँ पैग़ाम आता है
मिरी मय-नोशियाँ पीर-ए-मुग़ाँ के दम से क़ाएम हैं
करम होता है जब उस का तो मुझ तक जाम आता है
जिसे है काम 'इशरत से वो क़ैद-ए-ग़म को क्या जाने
समझता है वो क़ैद-ए-ग़म जो ज़ेर-ए-दाम आता है
उसी की ज़िंदगी है ज़िंदगी दुनिया में ऐ 'ख़ुशतर'
वही इंसान है इंसाँ जो सब के काम आता है
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