ओढ़ कर दर्द की इस धूप को जलते रहिए
ओढ़ कर दर्द की इस धूप को जलते रहिए
ख़ार मिल जाएँ तो फिर ख़ारों पे चलते रहिए
ज़िंदगी से है परे चाह की परछाईयाँ
रात दिन दर्द के सन्नाटों में पलते रहिए
एक शो बन के तुम्हें जीना पड़ेगा हर दिन
ज़हर जितना भी मिले उस को निगलते रहिए
आप से कोई भी उम्मीद नहीं मरहम की
आप तो सिर्फ़ नमक ज़ख़्मों पे मलते रहिए
और बढ़ जाएगी कुछ रंग-ए-हिनाई उस की
बस हथेली पे लहू को मिरे मलते रहिए
आप के नाम से मंसूब हो ग़ज़लें मेरी
लफ़्ज़ बन कर मिरे अश'आर में ढलते रहिए
ख़ुद-बख़ुद हार के इंसाफ़ चला जाएगा
सिर्फ़ तारीख़ पे तारीख़ बदलते रहिए
आस्तीनों में इन्हें पालते रहिए लेकिन
इन सपोलों के ज़रा फन भी कुचलते रहिए
मंज़िलें दूर हैं पर हौसला रखिए 'अरमान'
आप का फ़र्ज़ मसाफ़त है तो चलते रहिए
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