क़ाफ़िला जा के उसी दश्त में ठहरा अपना
क़ाफ़िला जा के उसी दश्त में ठहरा अपना
ख़ुद पे रखते हैं जहाँ पेड़ भी साया अपना
उस जगह ले के मुझे तिश्ना-लबी आई है
ख़ुद ही पी लेता है पानी जहाँ दरिया अपना
हम किसी ग़ैर के शर्मिंदा-ए-एहसान न हुए
हम ने ख़ुद बढ़ के उठाया है जनाज़ा अपना
उगती रहती हैं यहाँ शम्स-ओ-क़मर की फ़स्लें
क्या कमी हम को सलामत रहे सहरा अपना
लोग ही सारे बुरे हैं कि कमी तुझ में है
आईना रख के ज़रा देख तू चेहरा अपना
राहबर मुझ को नहीं चाहिए तेरी मंज़िल
मेरे क़दमों से उठा ले जा ये रस्ता अपना
फ़ासला अपनों से कुछ और बढ़ा और बढ़ा
होंगे सब अपने अगर कोई न होगा अपना
वक़्फ़ है रोज़-ए-अज़ल ही से किसी और के नाम
अपने किस काम का है ख़ून पसीना अपना
उन चराग़ों से कभी लौ न लगाना 'काज़िम'
जिन को ख़ुद अपने लिए कम है उजाला अपना
- पुस्तक : کتاب سنگ (पृष्ठ 27)
- रचनाकार : کاظم جرولی
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