क़दम जो राह-ए-मोहब्बत में थकने लगता है
क़दम जो राह-ए-मोहब्बत में थकने लगता है
हर एक ज़र्रा-ए-मंज़िल चमकने लगता है
वो जिस ने पी हो ज़रा सी भी इक़्तिदार की मय
हर एक बज़्म में क्या क्या बहकने लगता है
बनाने वाली हो पैवंद-ए-ख़ाक जिस को हवा
वो ग़ुंचा वक़्त से पहले चटकने लगता है
निगाह-ए-शौक़ में शामिल जो हो ख़ुलूस-ओ-नियाज़
नक़ाब-ए-रो-ए-दरख़्शाँ सरकने लगता है
तुम्हारी महकी हुई ज़ुल्फ़ के तसव्वुर से
मिरा जहान-ए-तख़य्युल महकने लगता है
कभी कभार जो होती है चाह पीने की
निगाह-ए-नाज़ का साग़र छलकने लगता है
क़रीब-ए-शाम हवाएँ जो आह भरती हैं
किसी की याद का काँटा खटकने लगता है
शब-ए-फ़िराक़ की ज़ुल्मत-फ़रोश वादी में
वो माहताब-ए-तमन्ना चमकने लगता है
दबा चुका हूँ जिसे ख़ाक-ए-दिल में मैं या-रब
वो शो'ला अज़-सर-ए-नौ क्यों भड़कने लगता है
रुका हुआ था जो आँखों में जाने क्यों 'मग़मूम'
वो बूँद बूँद लहू फिर टपकने लगता है
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