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क़दम जो राह-ए-मोहब्बत में थकने लगता है

कृष्ण गोपाल मग़मूम

क़दम जो राह-ए-मोहब्बत में थकने लगता है

कृष्ण गोपाल मग़मूम

MORE BYकृष्ण गोपाल मग़मूम

    क़दम जो राह-ए-मोहब्बत में थकने लगता है

    हर एक ज़र्रा-ए-मंज़िल चमकने लगता है

    वो जिस ने पी हो ज़रा सी भी इक़्तिदार की मय

    हर एक बज़्म में क्या क्या बहकने लगता है

    बनाने वाली हो पैवंद-ए-ख़ाक जिस को हवा

    वो ग़ुंचा वक़्त से पहले चटकने लगता है

    निगाह-ए-शौक़ में शामिल जो हो ख़ुलूस-ओ-नियाज़

    नक़ाब-ए-रो-ए-दरख़्शाँ सरकने लगता है

    तुम्हारी महकी हुई ज़ुल्फ़ के तसव्वुर से

    मिरा जहान-ए-तख़य्युल महकने लगता है

    कभी कभार जो होती है चाह पीने की

    निगाह-ए-नाज़ का साग़र छलकने लगता है

    क़रीब-ए-शाम हवाएँ जो आह भरती हैं

    किसी की याद का काँटा खटकने लगता है

    शब-ए-फ़िराक़ की ज़ुल्मत-फ़रोश वादी में

    वो माहताब-ए-तमन्ना चमकने लगता है

    दबा चुका हूँ जिसे ख़ाक-ए-दिल में मैं या-रब

    वो शो'ला अज़-सर-ए-नौ क्यों भड़कने लगता है

    रुका हुआ था जो आँखों में जाने क्यों 'मग़मूम'

    वो बूँद बूँद लहू फिर टपकने लगता है

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