रहें ख़िलाफ़ मिरे ज़हर भी उगलने लगें
रहें ख़िलाफ़ मिरे ज़हर भी उगलने लगें
मगर न इतना कि मिलने पे हाथ मलने लगें
तो क्या बदल लूँ मैं अपना मिज़ाज उन की तरह
जो बन के साँप मिरी आस्तीं में पलने लगें
समझना इश्क़ की मेराज मिल गई है मुझे
मिरे मज़ार पे जब भी चराग़ जलने लगें
बहुत सँभाल के रखता हूँ खोटे सिक्के मैं
अजब नहीं कि किसी रोज़ ये भी चलने लगें
है आरज़ू कि वो डालें निगाह-ए-शोख़ इधर
जबीन-ए-शौक़ में सज्दे कई मचलने लगें
तुम्हारी यादों की ख़ुशबू फ़ज़ाओं में बिखरे
हवाएँ मेरे इरादों की सम्त चलने लगें
जुनून-ए-इश्क़ हमें होश इतना रहने दे
कि लड़खड़ाएँ अगर हम तो ख़ुद सँभलने लगें
चराग़ इस लिए शब को नहीं जलाता मैं
कहीं न साए मिरे ही मुझे निगलने लगें
अब ऐसे मोम बदन भी नहीं 'फहीम' कि हम
ज़रा सी गर्मी-ए-आलाम से पिघलने लगें
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