रस्म-ए-मय-ख़ाना निभाते हैं चले जाते हैं
रस्म-ए-मय-ख़ाना निभाते हैं चले जाते हैं
अब्दुस समी सिद्दीक़ी नईम
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रस्म-ए-मय-ख़ाना निभाते हैं चले जाते हैं
अपने हिस्से की उठाते हैं चले जाते हैं
जाने क्या सोच के आते हैं चले जाते हैं
हौसला मेरा बढ़ाते हैं चले जाते हैं
राब्ता है न त'अल्लुक़ है कोई पहला सा
रफ़्तगाँ ख़्वाब में आते हैं चले जाते हैं
वो जो लफ़्ज़ों के उलट-फेर को फ़न कहता है
उस को मीज़ान थमाते हैं चले जाते हैं
मानता हूँ कि हैं हाइल कई पर्बत लेकिन
हम ये दीवार गिराते हैं चले जाते हैं
ख़ौफ़ के साए में क्यों ख़त्म हो सोचों का सफ़र
आओ हँसते हैं हँसाते हैं चले जाते हैं
जिस को आना है वो आएगा हमें फ़िक्र नहीं
हम तो आवाज़ लगाते हैं चले जाते हैं
ग़म भी अपना है 'न'ईम' आज तज़ब्ज़ुब का शिकार
अश्क पलकों तलक आते हैं चले जाते हैं
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