रेत में कितनी ही सीपियाँ दफ़्न हैं जिन के सीनों से गौहर निकलते रहे
रेत में कितनी ही सीपियाँ दफ़्न हैं जिन के सीनों से गौहर निकलते रहे
जहूर बिस्वानी
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रेत में कितनी ही सीपियाँ दफ़्न हैं जिन के सीनों से गौहर निकलते रहे
और समुंदर में ऐसे सदफ़ भी हैं जो मोतियों के लिए हाथ मलते रहे
राह-ए-ग़म की मसाफ़त भी क्या ख़ूब थी ख़ुद ही गिरते रहे ख़ुद सँभलते रहे
रास्ता भी नया था सफ़र भी नया जिस तरफ़ उठ गए पाँव चलते रहे
आए औरों के दामन में तो फूल भी अपने दामन में आँसू ही पलते रहे
हम तो मजबूर के ताक़ के दीप हैं ख़ुद ही बुझते रहे ख़ुद ही जलते रहे
राज़ कैसा भी हो राज़ फिर राज़ है राज़-दाँ मैं ने अपना बनाया नहीं
मस्लक-ए-इश्क़ में ये बड़ा जुर्म था दिल के अरमान दिल में मचलते रहे
ओस से प्यास किस तरह बुझती मिरी झुलसे जीवन को ख़्वाहिश थी बरसात की
खेतियाँ वो जो पहले से शादाब थीं उन पे दिन-रात बादल मचलते रहे
रहबरों की सियासत न कुछ पूछिए रहज़नों की हिफ़ाज़त न कुछ देखिए
ख़्वाब तिरयाक के भी सँवरते रहे साँप भी आस्तीनों में पलते रहे
लाख तूफ़ान आए चलीं आँधियाँ पत्थरों की भी बरसात होती रही
ऐसे अश्जार भी इस चमन में मिले ज़ुल्म सहते रहे और फिसलते रहे
आग फ़िरक़ा-परस्ती की ऐसी लगी जो न अब तक किसी के बुझाए बुझी
रहनुमा अम्न का स्वाँग रचते रहे और घरों से जनाज़े निकलते रहे
किस क़दर बन गए आज वो संग-दिल जिन के हाथों में पत्थर कभी मोम था
ये न उन की समझ में 'ज़ुहूर' आ सका कितने सूरज अंधेरे निगलते रहे
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