साथ हो कोई तो कुछ तस्कीन सी पाता हूँ मैं
साथ हो कोई तो कुछ तस्कीन सी पाता हूँ मैं
तेरे आगे जा के तन्हा और घबराता हूँ मैं
सामने आते ही उन के चुप सा हो जाता हूँ मैं
जैसे ख़ुद अपनी तमन्नाओं से शरमाता हूँ मैं
इक मुसलसल ज़ब्त ही का नाम शायद इश्क़ है
अब तो नज़रों तक को आँखों ही में पी जाता हूँ मैं
देख सकते काश तुम मेरी तमन्नाओं का जश्न
जब उन्हें झूटी उम्मीदें दे के बहलाता हूँ
मेरे पैरों को है कुछ रौंदी हुई राहों से बैर
जिस तरफ़ कोई नहीं जाता उधर जाता हूँ मैं
इक निगाह-ए-लुत्फ़ आते ही वही है हाल-ए-दिल
सब पुराने तजरबों को भूल सा जाता हूँ मैं
ये मिरे अश्क-ए-मुसलसल बस मुसलसल अश्क हैं
कौन कहता है तुम्हारा नाम दोहराता हूँ मैं
शाम-ए-ग़म क्या क्या तसव्वुर की हैं चीरा-दस्तियाँ
हाँ तुम्हें भी तुम से बिन पूछे उठा लाता हूँ मैं
कारोबार-ए-इश्क़ में दुनिया की झूटी मस्लहत
मुझ को समझाते हैं वो और दिल को समझाता हूँ मैं
साथ तेरे ज़िंदगी का वो तसव्वुर में सफ़र
जैसे फूलों पर क़दम रखता चला जाता हूँ मैं
रंज-ए-इंसाँ की हक़ीक़त में तो समझा हूँ यही
आज दुनिया में मोहब्बत की कमी पाता हूँ मैं
मेरे आँसू में ख़ुश्बू मेरे हर नाले में राग
अब तो हर इक साँस में शामिल तुम्हें पाता हूँ मैं
अब तमन्ना बे-सदा है अब निगाहें बे-पयाम
ज़िंदगी इक फ़र्ज़ है जीता चला जाता हूँ मैं
हाए 'मुल्ला' कब मिली ख़ामोशी-ए-उल्फ़त की दाद
कोई अब कहता है कुछ उन से तो याद आता हूँ मैं
- पुस्तक : Kulliyat-e-Anand Narayan Mulla (पृष्ठ 235)
- रचनाकार : Khaliq Anjum
- प्रकाशन : National Council for Promotion of Urdu Language-NCPUL (2010)
- संस्करण : 2010
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