सदमे से शब-ए-हिज्र के कब जान बर आई
सदमे से शब-ए-हिज्र के कब जान बर आई
मीर मुज़फ़्फ़र हुसैन ज़मीर
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सदमे से शब-ए-हिज्र के कब जान बर आई
ये शाम नहीं आई क़ज़ा ही मगर आई
देखा मिरा बिस्तर जो कल उस शोख़ ने ख़ाली
हर चंद किया ज़ब्त मगर आँख भर आई
करता है कई दिन से मिरे क़त्ल की तदबीर
सद-शुक्र कि उस बुत की तबीअ'त इधर आई
आते ही तिरे आ गई इक जान सी तन में
ऐ निगहत-ए-गेसू-ए-मोअम्बर किधर आई
तस्वीर-ए-ख़याली की तिरी क्या कहूँ शोख़ी
गह छुप गई नज़रों से तो गाहे नज़र आई
गुलशन में ख़िज़ाँ आई तो बुलबुल ये पुकारी
अब फ़स्ल-ए-बहारी गुल-ए-दाग़-ए-जिगर आई
तुर्बत पे चढ़ाने को तिरे सोख़्तगाँ के
ले के पर-ए-परवाना नसीम-ए-सहर आई
हर तार-ए-निहानी ही को समझा मैं रग-ए-गुल
याद उस गुल-ए-नाज़ुक की जो मुझ को मगर आई
पूछो तो ‘ज़मीर’-ए-जिगर-अफ़गार कहाँ है
जिस दिन से गया वो न फिर उस की ख़बर आई
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