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सफ़र में ज़िंदगी के हम उन्हें रहबर समझते हैं

कुलदीप गौहर

सफ़र में ज़िंदगी के हम उन्हें रहबर समझते हैं

कुलदीप गौहर

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    सफ़र में ज़िंदगी के हम उन्हें रहबर समझते हैं

    जो संग-ए-राह को फूलों ही का बिस्तर समझते हैं

    बशर ने ही नहीं समझे रुमूज़-ए-गर्दिश-ए-पैहम

    रुमूज़-ए-गर्दिश-ए-पैहम मह-ओ-अख़्तर समझते हैं

    इलाही राज़-ए-हस्ती एक ऐसा राज़ है जिस को

    दीवाने समझते हैं दानिश-वर समझते हैं

    ख़यालों से ही सच्चाई का अंदाज़ा नहीं होता

    कि मंज़र देखने वाले ही पस-मंज़र समझते हैं

    हक़ीक़त को समझने में ख़ुदी का ज़ो'म हाइल है

    हक़ीक़त हम मता'-ए-बे-ख़ुदी पा कर समझते हैं

    बशर ने जंग का मैदाँ बनाया है इन्हें वर्ना

    परिंदे मंदिर-ओ-मस्जिद को अपना घर समझते हैं

    जुनून-ए-'इश्क़ के मारों की ख़ूबी है यही 'गौहर'

    वो हर बेदाद-गर को अपना चारागर समझते हैं

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