सहरा का शजर फ़ैज़ में माओं की तरह था
सहरा का शजर फ़ैज़ में माओं की तरह था
जो धूप में जन्नत की फ़ज़ाओं की तरह था
मैं ग़ुर्बत-ओ-इफ़्लास के सहरा का मुसाफ़िर
वो रेशम-ओ-अतलस की क़बाओं की तरह था
जो जिस्म पे रखता था रईसों का लबादा
वो शख़्स मिज़ाजन तो गदाओं की तरह था
ऐ जान-ए-बहाराँ तिरे इक आने से पहले
ये दिल किसी उजड़े हुए गाओं की तरह था
वो लम्हा जो गुज़रा तिरे बिन कैसे बताऊँ
तूफ़ान-ए-हवादिस की हवाओं की तरह था
ये 'उक़्दा खुला जो मिरा दम-साज़ था अब तक
सहरा में वो बे-फ़ैज़ सदाओं की तरह था
उस शख़्स से महरूम हुआ दस्त-ए-तमन्ना
जो मुझ को मुसीबत में दु'आओं की तरह था
रह रह के बहुत धूप में याद आता है 'राही'
अपने लिए बरगद की जो छाओं की तरह था
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