सैंकड़ों साए मगर इक आश्ना चेहरा न था
सैंकड़ों साए मगर इक आश्ना चेहरा न था
जगमगाते शहर में मुझ सा कोई तन्हा न था
जिस ने झाँका रात मुझ को आइने की ओट से
जाना पहचाना लगा पहले कभी देखा न था
मुझ से पहले भी बहुत से अहल-ए-दिल रुस्वा हुए
शहर में लेकिन कभी इतना तिरा शोहरा न था
हर कली की आँख में भीगे धुँदलके छा गए
वक़्त की आँखों में काजल शाम का फैला न था
हब्स भी था एक वहशत-नाक सन्नाटे के साथ
दम-ब-ख़ुद हर शाख़ थी पत्ता कोई हिलता न था
कौन सी दीमक बदन से रूह तक चट कर गई
अब हूँ जितना खोखला पहले कभी इतना न था
जिस ने रुस्वा कर दिया 'अकरम' भरे बाज़ार में
सोचता हूँ उस से क्या मेरा कोई रिश्ता न था
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