सन्नाटे के शोर से फिर आवाज़ों का सहरा चमका
सन्नाटे के शोर से फिर आवाज़ों का सहरा चमका
सय्यद अज़हर मसऊद रिज़्वी
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सन्नाटे के शोर से फिर आवाज़ों का सहरा चमका
ज़ेर-ए-फ़लक जो अब तक ख़्वाबीदा था वो फ़ित्ना चमका
दश्त-ए-हवा के दोष पे वहशी ख़ुशबू ने पर फैलाए
रंग हवा बेदार अंगड़ाई साँप ने ली शोला चमका
पत्थर शीशा चाँदी सोना मोती हीरा शम्स क़मर
हैरत वहशत ख़ाक समुंदर पैकर आईना चमका
शहर-ए-सियाह पे टूटी होंगी कैसी कैसी तलवारें
पर्दा-ए-ख़्वाब पे गुज़रा मंज़र बे-चमके क्या क्या चमका
साहिर लश्कर सब्र फ़सील तक आ के रजज़-ख़्वाँ होता है
तू भी हिसार-ए-जाँ से निकल कर ख़ंजर-ए-गर्म-नवा चमका
रात पहाड़ पे बिजली तड़पी पत्थर टूटा आग लगी
पल-भर को मेरे कमरे की खिड़की का शीशा चमका
कारोबार जमा है फिर से तीर तबर तलवारों का
मुद्दत से जो सर्द पड़ा था आहों का धंदा चमका
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