सरसब्ज़ है जो मौसम-ए-गुल में चमन तमाम
सरसब्ज़ है जो मौसम-ए-गुल में चमन तमाम
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
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सरसब्ज़ है जो मौसम-ए-गुल में चमन तमाम
अपना भी चाक-चाक हुआ पैरहन तमाम
हस्ती में भी तो भूला न अहल-ए-अदम को मैं
ग़ुर्बत में याद आए मुझे हम-वतन तमाम
ख़ुश-ए'तिक़ाद हो गए उस बुत को देख कर
ज़ुन्नार तोड़ डालेंगे अब बरहमन तमाम
हस्ती में जो अदम से न आए वो ख़ूब है
जो आएगा उठाएगा रंज-ओ-मेहन तमाम
मैं बद-नसीब शूमी-ए-क़िस्मत से रह गया
पहुँचा हूँ कब जब उठ गई वो अंजुमन तमाम
आराइश-ए-जमाल की कमसिन को क्या तमीज़
उलझी है उस की ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन तमाम
शायद चमन में आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है
फिर हो गए हरे मिरे ज़ख़्म-ए-कुहन तमाम
सोज़-ए-दरूँ के ज़ब्त का यारा नहीं रहा
मामूर आबलों से है अपना दहन तमाम
देरीना ख़ुम अगर है तो है आसमान-ए-पीर
इस में भरी हुई है शराब-ए-कुहन तमाम
गुल क्या सिवा हो उस से कहीं नाज़ुकी में तुम
आईने से है साफ़ तुम्हारा बदन तमाम
अल्लाह अंदलीब हूँ मैं किस क़िमाश का
गुल इस चमन के मुझ पे हैं क्यों ख़ंदा-ज़न तमाम
सद-शुक्र बंदा हिर्स-ओ-हवा का नहीं हूँ मैं
हमराह ले के जाऊँगा दो गज़ कफ़न तमाम
अफ़्सोस जान-ए-शीरीं की परवा न कुछ भी की
तेशे से अपना काम किया कोहकन तमाम
दीवाने हो गए तिरे वहशी को देख कर
जंगल में अपनी चौकड़ी भूले हिरन तमाम
सौदा जो 'सब्र' मुझ को है मिज़्गान-ए-यार का
नश्तर ही बन गए हैं मिरे मू-ए-तन तमाम
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