शब को उलझे थे तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से हम
शब को उलझे थे तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से हम
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
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शब को उलझे थे तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से हम
अब परेशान हैं उसी ख़्वाब की ता'बीर से हम
तुझ से ऐ दोस्त तिरा तर्ज़-ए-तकल्लुम सीखा
ख़ामुशी सीख रहे हैं तिरी तस्वीर से हम
फ़र्ज़ की क़ैद से दामन जो छुड़ा लेंगे कभी
फिर न रोके से रुकेंगे किसी तदबीर से हम
अश्क-ए-रंगीं से बनाते हैं जो दिल की तस्वीर
नूर भरते हैं तिरे हुस्न की तनवीर से हम
तेरी बातों को हर अंदाज़ से परखा हम ने
इतने वारफ़्ता न थे लज़्ज़त-ए-तक़रीर से हम
की है तक़दीर बदलने की भी सई-ए-पैहम
हैफ़ मजबूर रहे आप की तहरीर से हम
शाद-ओ-आबाद रहो हाल हमारा पूछा
और क्या कहते 'शिफ़ा' उस बुत-ए-बे-पीर से हम
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