शहर-ए-दिल काश कि इक शहर-ए-तमन्ना होता
शहर-ए-दिल काश कि इक शहर-ए-तमन्ना होता
यार इस दश्त में कोई तो सहारा होता
मैं तिरे शहर से गुज़रा हूँ तो हंगामा हुआ
गर तिरे पास ठहरता तो भला क्या होता
पा-ब-जौलाँ न सही जाते मगर हम भी ज़रूर
सहन-ए-मक़्तल ने हमें भी तो पुकारा होता
शहर का शहर तुम्हें देखने आया हुआ है
तुम न आते तो मिरी जान तमाशा होता
चश्म-ए-पुर-नम भी अगर हद से तजावुज़ करती
ख़ेमा-ए-ख़्वाब में इक शोर सा बरपा होता
यूँ सर-ए-राह तमाशा न बनाते उस का
नोक-ए-नेज़ा पे अगर कोई तुम्हारा होता
हम मोहब्बत में कोई चाल जो चलते 'आसिफ़'
वो जो कहने को हमारा है हमारा होता
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