तल्ख़ लहजा जिस की फ़ितरत है उसी नारी का बोझ
तल्ख़ लहजा जिस की फ़ितरत है उसी नारी का बोझ
मैं उठाए फिर रहा हूँ ज़ीस्त बेचारी का बोझ
कटघरे में अद्ल की ख़ातिर खड़ा है बे-क़ुसूर
ढो रहा है एक बेबस कब से लाचारी का बोझ
इस लिए पल भर को मैं सोता नहीं आराम से
ले के सोता हूँ हमेशा सर पे बेदारी का बोझ
ज़िंदगी कैसे गुज़ारूँ मैं तो इक मज़दूर हूँ
इक तरफ़ बेटी की शादी उस पे बीमारी का बोझ
उस को आँखों ने नहीं देखा तो यूँ लगता रहा
जैसे आँखों के सरों पर हो जफ़ा-कारी का बोझ
और मत रक्खो मिरे काँधों पे ज़िम्मेदारियाँ
पहले ही कुछ कम नहीं है रोटी तरकारी का बोझ
तजरबे के साथ कीजिए मिस्रा-ए-सानी क़ुबूल
सब से भारी है तो है दुनिया में ख़ुद्दारी का बोझ
बार-ए-फ़न ढोने की ताक़त दे वगर्ना ऐ करीम
ना-तवाँ कैसे उठा सकता है फ़नकारी का बोझ
बादशाह-ए-वक़्त हैं बे-फ़िक्र और ताहिर-'सऊद'
नौजवाँ दिल पर लिए फिरते हैं बेकारी का बोझ
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