तुम्हारी ज़ुल्फ़ का दिल से मुक़ाबला न गया
तुम्हारी ज़ुल्फ़ का दिल से मुक़ाबला न गया
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
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तुम्हारी ज़ुल्फ़ का दिल से मुक़ाबला न गया
हमारे सर से ये सौदा ये सिलसिला न गया
अगरचे जाँ से गए बारहा मोहब्बत में
शिकस्त-ए-फ़ाश पे भी वैसे हौसला न गया
हटा के ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ वो रुख़ से यूँ बोले
कभी ये शाम-ओ-सहर ही का फ़ासला न गया
हवा-ए-बादा-ए-माशूक़ अब भी बाक़ी है
शबाब जाने पे भी दिल का वलवला न गया
बुझाई प्यास न कब इस से ख़ार-ए-सहरा की
मैं अपने पाँव का कब ले के आबला न गया
यहाँ जफ़ा का वफ़ा का वहाँ रहा शिकवा
हमारे उन के दिलों से यही गिला न गया
यहाँ हमेशा अजल डालती रही डाका
अदम को कौन से दिन लुट के क़ाफ़िला न गया
तिरी ही तेग़-ए-जफ़ा के ये नीम-बिस्मिल हैं
दिल-ओ-जिगर का कभी कर के फ़ैसला न गया
निकल गया था वो खोटा हमारा दिल ले कर
हमीं खरे थे जो उस से मोआ'मला न गया
जो दिल का चाक सिया तो जिगर हुआ टुकड़े
तमाम उम्र यही अपना मश्ग़ला न गया
वज़ीफ़ा-ख़्वार है ये बारगाह का उस की
ख़ुदा के घर से कभी 'सब्र' का सिला न गया
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