तुम्हें मिल कर भी अक्सर दिल के अरमाँ दिल में रहते हैं
तुम्हें मिल कर भी अक्सर दिल के अरमाँ दिल में रहते हैं
साहिर सियालकोटी
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तुम्हें मिल कर भी अक्सर दिल के अरमाँ दिल में रहते हैं
तुम्हारे चाहने वाले बड़ी मुश्किल में रहते हैं
उसे नाशाद करने का उसे बर्बाद करने का
गिला है तो उन्हीं से है जो मेरे दिल में रहते हैं
रज़ाकारान-ए-उल्फ़त मौत से हरगिज़ नहीं डरते
हमें देखो कि हर दम कूचा-ए-क़ातिल में रहते हैं
जुनूँ की ख़ामकारी चैन लेने ही नहीं देती
हम उन को ढूँडते हैं जो हमारे दिल में रहते हैं
तलाश-ए-यार की फ़ुर्सत अगर होगी तो कर लेंगे
अभी तो रात दिन हम जुस्तजू-ए-दिल में रहते हैं
कभी तो ग़ौर कर लें क़िस्सा-ए-ख़िज़्र-ओ-सिकन्दर पर
वो रहरव जो तलाश-ए-रहबर-ए-कामिल में रहते हैं
हमीं को ऐ ख़ुदा कुछ हो गया है या ज़माने को
हमारे ही गिले-शिकवे हर इक महफ़िल में रहते हैं
दिल-ए-बीमार की हालत न बदली है न बदलेगी
हमारे चारागर क्यों सई-ए-ला-हासिल में रहते हैं
दिल-ए-नादाँ की आदत से बहुत बेज़ार हूँ 'साहिर'
ये हज़रत हर-घड़ी इक फ़िक्र-ए-ला-हासिल में रहते हैं
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