तू जो कहता है शब-ए-वस्ल में हर बार नहीं
तू जो कहता है शब-ए-वस्ल में हर बार नहीं
हम समझते हैं ये इक़रार है इंकार नहीं
किस के दिल में तिरी उल्फ़त का चुभा ख़ार नहीं
कौन है वो जो तिरा तालिब-ए-दीदार नहीं
कुफ़्र-ओ-दीं कुछ सबब-ए-सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार नहीं
इस से होता कोई काफ़िर कोई दीदार नहीं
अपना वो हाल है जो क़ाबिल-ए-इज़हार नहीं
वो ज़बाँ अपनी है जो लाएक़-ए-गुफ़्तार नहीं
क्या है वो इश्क़ कि जिस की न हो शोहरत सब में
क्या वो आशिक़ है जो रुस्वा सर-ए-बाज़ार नहीं
इश्क़ में इक बुत-ए-काफ़िर के हमारे तन पर
कौन सी रग है जो हम-सूरत-ए-ज़ुन्नार नहीं
मश्ग़ला दस्त-ए-जुनूँ के लिए अब क्या होगा
एक भी अपने गरेबाँ में रहा तार नहीं
बोलो आहिस्ता शब-ए-वस्ल ख़ुदा को मानो
कोई बद-ख़्वाह खड़ा हो पस-ए-दीवार नहीं
ऐसी हालत में हो क्यूँकर मुझे उम्मीद-ए-विसाल
मेरे कहने में वो माशूक़-ए-तरहदार नहीं
अब बुलाना है हमें उस का अबस ऐ क़ासिद
ताब उठने की नहीं ताक़त-ए-रफ़्तार नहीं
ज़ीस्त की बात तो है और मगर ज़ाहिर में
मरज़-ए-इश्क़ से बचने के कुछ आसार नहीं
हाल-ए-दिल अपना बयाँ किस से करूँ ऐ 'साबिर'
कोई मोनिस नहीं हमदम नहीं ग़म-ख़्वार नहीं
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