उन्हें हम सालिक-ए-राह-ए-फ़ना ऐ दिल समझते हैं
उन्हें हम सालिक-ए-राह-ए-फ़ना ऐ दिल समझते हैं
मुस्तफ़ा हुसैन नय्यर
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उन्हें हम सालिक-ए-राह-ए-फ़ना ऐ दिल समझते हैं
जो अपने हर-नफ़स को आख़री मंज़िल समझते हैं
उसे हम दौलत-ए-कौनैन का हासिल समझते हैं
जिसे सब दूर कहते हैं जिसे सब दिल समझते हैं
वही कुछ सज्दा-हा-ए-शौक़ का हासिल समझते हैं
जो उस के क़ुर्ब को फ़िरदौस-ए-जान-ओ-दिल समझते हैं
निशाँ है मेरे सज्दे का जो इक राह-ए-मोहब्बत में
उसी को सब चराग़-ए-सरहद-ए-मंज़िल समझते हैं
न वो क़ातिल न उन की चश्म-ओ-मिज़्गान-ओ-नज़र क़ातिल
हम अपने दिल को ख़ुद अपने लिए क़ातिल समझते हैं
कोई इस इर्तिबात-ए-बाहमी के राज़ क्या जाने
जिसे वो तीर कहते हैं उसे हम दिल समझते हैं
वो इक हल्का सा परतव है मिरे दाग़-ए-मोहब्बत का
जिसे अहल-ए-जहाँ 'नय्यर' मह-ए-कामिल समझते हैं
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