उस की क़ुर्बत का तमाशा भी अजब है साईं
उस की क़ुर्बत का तमाशा भी अजब है साईं
लोग बीमार समझते हैं ग़ज़ब है साईं
अब तबीअ'त के न लगने पे खुला महफ़िल में
इक वही शोख़ नहीं वैसे तो सब है साईं
हाए कम्बख़्त ने इस दर्जा किया है मायूस
मैं समझता था कि इज़हार-ब-लब है साईं
मैं भी कुछ अपने हुनर का तो दिखाऊँ जल्वा
जश्न-ए-नौरोज़ बता शहर में कब है साईं
रंग खुलता है कहाँ शाम से पहले उस का
शाम भी देर से आती है ग़ज़ब है साईं
शौक़ मेरा ये नहीं है मिरी मजबूरी है
कुछ तो इस तरह भटकने का सबब है साईं
दर्द-ए-दिल ले के कहीं और भला क्यों जाऊँ
सामने जब मिरे तेरा ये मतब है साईं
- पुस्तक : مرے تصور میں رنگ بھردو (पृष्ठ 53)
- रचनाकार : بسمل عارفی
- प्रकाशन : نور پبلی کیشن، دریا گنج،نئی دہلی (2019)
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