वा'दा कभी सच्चा कोई करता ही नहीं है
वा'दा कभी सच्चा कोई करता ही नहीं है
अंदेशा-ए-फ़र्दा तो गुज़रता ही नहीं है
दामन की शिकन दूर से लेती है बलाएँ
बल यार के अबरू का उतरता ही नहीं है
दिल से तो मिरे सीने के फिर दाग़ ही अच्छे
कम-बख़्त उभारे से उभरता ही नहीं है
सब भूल गए उस को तिरे अहद-ए-सितम में
अब शिकवा-ए-गर्दूं कोई करता ही नहीं है
जो जानते हैं बढ़ के नशेमन से क़फ़स को
पर ऐसों के सय्याद कतरता ही नहीं है
क्या चीज़ है ऐ बादा-कशो मौसम-ए-गुल भी
इस दौर में तौबा कोई करता ही नहीं है
अपने सितम-ओ-जौर उसे लाख सिखाओ
दरबाँ से तुम्हारे कोई डरता ही नहीं है
यूँ पिसने को दिल लाख पिसें बर्ग-ए-हिना पर
वो हाथ कभी ख़ून में भरता ही नहीं है
क्या आ गई उस में दिल-ए-बेताब की उलझन
गेसू है किसी का कि सँवरता ही नहीं है
समझा है असर कोई बला आह को मेरी
डरता है वो गर्दूं से उतरता ही नहीं है
जब तक कोई आए न लब-ए-बाम निखर कर
रंग-ए-शफ़क़-ए-शाम निखरता ही नहीं है
दीवाना 'रियाज़' औरों से क्या बात करेगा
माशूक़ों से तो बात वो करता ही नहीं है
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